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सांझ झाली कशी डोळे भरता
पुन्हा आहे तुझी कमतरता
मूठमाती दिल्याने येईल जीव
श्वास कधीचा अडकला अता
वेळ थांबत नाही कुठे बघ ना
माणसासारखा वागतो न चुकता
उरले ना काही नाते तरीही
निरोप तरी दे हसता ह्सता
~ गुलज़ार
मूळ गज़ल: शाम से आँख में नमीं सी है
गज़लकार: गुलज़ार
मराठी अनुवाद: तुषार जोशी, नागपूर
मूळ गज़ल:
शाम से आँख में नमी सी है
आइये आप की कमी सी हैं
दफ्न कर दो हमें की साँस आए
नब्ज कुछ देर से थमी सी है
वक्त रहता नहीं कहीं छुपकर
इसकी आदस थी आदमी सी है
कोई रिश्ता नहीं रहा फिर भी
एक तसलीम लाज़मी सी है
~ गुलज़ार
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1 टिप्पणी:
Wow. What a poem. Indeed very apt and influencing
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